धुध्लाते जज्बात...
ये कैसी अफ़रा-तफ़री ये कैसी रफ़्तार है
हर एक को है अपनी ही जल्दी यहाँ
हर एक की है अपनी मंज़िल यहाँ ,
है हर कोई अपने में मगन यहाँ
क्यों करे कोई और किसी के लिए जतन यहाँ ,
नहीं करता कोई किसी का इंतज़ार यहाँ
नहीं करता कोई किसी से प्यार यहाँ,
है हर कोई अपना ही मीत यहाँ
लबों पे थिरकता खुद का ही गीत यहाँ ,
कहाँ खो गया वो सुकून जिसका सबको इंतज़ार है
कहाँ है वो हसीं शै जिसे सब कहते इंसान हैं ,
हर एक का है अपना मतलब यहाँ
नहीं इंसानियत की है पहचान यहाँ ,
नहीं जानते दिल और दिलों की बातें
बस एक मकसद ही है सबको आम यहाँ ,
ये कैसी जगह जी रहे हम जहाँ कहने को अपनों का अम्बार है
ये कैसा बदलाव है दोस्तों ये कैसी रफ़्तार है ।
दीप
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